नई दिल्ली
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए लोकसभा चुनाव के नतीजे राहत लेकर आए हैं। मतगणना के कई दौर के बाद दोपहर 2 बजे के करीब ताजा रुझानों में उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को 31 सीटों पर बढ़त मिली हुई है, जबकि मुख्य विपक्षी भाजपा को आठ सीटों का नुकसान होता दिख रहा है। रुझानों में भाजपा 10 सीटों पर सिमटती दिख रही है। कांग्रेस भी अपने पुराने प्रदर्शन से हाफ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) साफ होती नजर आ रही है। निर्वाचन आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में तृणमूल को 31, भाजपा को 10 और कांग्रेस को एक सीट पर बढ़त मिली हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर संदेशखाली मुद्दे, नगारिकता संशोधन का मुद्दा और शिक्षक भर्ती घोटाला मामले को उछालकर और राज्य में सियासी हवा बनाकर भी भाजपा कंगाल कैसे हो गई? वह अपना पुराना रिकॉर्ड भी क्यों नहीं दोहरा पाई और आठ सीटों का नुकसान कैसे करा बैठी? बता दें कि 2019 में तृणमूल कांग्रेस को 22, भाजपा को 18 और कांग्रेस को दो सीटें मिली थीं।

संदेशखाली और मुस्लिम ध्रुवीकरण:
पश्चिम बंगाल में 27 फीसदी आबादी मुस्लिमों की है। भाजपा लगातार ममता बनर्जी पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाकर बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को रिझाने की कोशिश करती रही है। इसी कड़ी में भाजपा ने नागरिकता संशोधन कानून के जरिए बांग्लादेश से आए हिन्दुओं को नागरिकता देने का ना सिर्फ ऐलान किया बल्कि आखिरी चरण से पहले लोगों को नागरिकता भी दी। संदेशखाली का मुद्दा उठाकर भी भाजपा ने टीएमसी की मुस्लिम तुष्टिकरण के खिलाफ हिन्दुओं को लामबंद करने की कोशिश की लेकिन यह दांव बहुत कारगर साबित नहीं हुआ और उलटे 27 फीसदी मुस्लिम भाजपा के खिलाफ एकजुट हो गए और दीदी के पक्ष में खड़े हो गए।

एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर:
देश में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और पिछले 10 साल के मोदी सरकार के शासन के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर ने भी पश्चिम बंगाल में भाजपा का रथ रोकने में अहम भूमिका निभाई है। वैसे सत्ता विरोधी लहर तो ममता सरकार के खिलाफ भी है लेकिन चूंकि यह संसदीय चुनाव रहा, इसलिए इसमें केंद्र सरकार के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी फैक्टर ज्यादा हावी रहा।

एंटी बंगाली सेंटीमेंट्स:
चुनावों से पहले कलकत्ता हाई कोर्ट ने राज्य में बहाल करीब 25000 शिक्षकों की नौकरी खत्म कर दी और हाई कोर्ट के जिस जज ने कथित शिक्षक भर्ती घोटाला मामले में यह फैसला दिया, उसके भाजपा में शामिल होने और लोकसभा चुनावों में भाजपा उम्मीदवार बनने को ममता बनर्जी और उनकी पार्टी ने राज्यवासियों खासकर उन 25000 परिवारों के साथ छल करार दिया। टीएमसी इस मुद्दे को बंगाली सेंटीमेंट्स से जोड़ने में कामयाब रही और भाजपा के खिलाफ बांग्ला गौरव घोष कर हवा बनाने में कारगर रही। टीएमसी भाजपा और पीएम मोदी को एंटी बांग्ला करार देती रही।

भाजपा में चेहरे की कमी:
पश्चिम बंगाल में भाजपा के पास चेहरों की भी कमी महसूस की गई। बंगाल में भाजपा के पास काडरों की कमी है। ऐसे में वह दूसरे दलों से आए नेताओं पर ज्यादा निर्भर है। खुद बंगाल भाजपा के बड़े नेता सुवेंदु अधिकारी भी तृणमूल कांग्रेस से आए नेता हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि भाजपा के किसी भी नेता की राज्यभर में स्वीकार्यता नहीं है, जो राज्य में पार्टी के पक्ष में हवा बना सके। राज्य में चुनावी हवा बनाने का भी दारोमदार खुद प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय नेताओं पर था। यह बात बांग्ला मानुष को खटकी और उन लोगों ने स्थानीयता का तरजीह देते हुए मोदी के बजाय ममता पर ज्यादा भरोसा करना मुनासिब समझा।

लक्ष्मीर योजना पर भरोसा:
ममता बनर्जी ने मुस्लिमों के अलावा महिलाओं को भी बांधकर रखने में बड़ी कामयाबी हासिल की है। भाजपा जहां संदेशखाली का मुद्दा उठाकर टीएमसी के नेता शेखजहां के अत्याचारों के बहाने महिलाओं को अपने पाले में करने की कोशिश की, वहीं ममता बनर्जी की लक्ष्मीर योजना ने उन्हें समाज के निचले पायदान की महिलाओं से जोड़े रखने में बड़ी मदद की। दरअसल, यह बंगाल की एक मशहूर योजना है, जिसके तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की महिलाओं को नकद वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। संदेशखाली के यौन उत्पीड़न के बरक्स राज्य में लक्ष्मीर योजना की लाभार्थियों का समूह और सेंटीमेंट भाजपा के दांव पर भारी पड़ा , ऐसा जान पड़ता है।